न जाने किन राहों में चलते-चलते, खो गए हैं हम
इन गुलशन तन्हाइयों के बीच, सपनें सो गए हैं अब।
दिलों की है ये दास्तान,
सब नसीब का है कारोबार
इन्ही गुमशुदा राहों में
ज़िन्दगी से आँखें हुई थीं चार।
झाँका था उस समय जब हमने दीवार के उस पार,
दिखे कुछ बिखरे हुए सपने,
कुछ धुंधली-धुंधली यादें,
कुछ महोब्बत के दो पल, ज़ार-ज़ार।
इस कचरे के ढेर में, इस नापाक समुन्दर में
दिखा था एक राही, अपनी राह बनाता हुआ;
भटका एक बेचारा, ज़िन्दगी के गीत गुनगुनाता हुआ।
कुछ सपनों को समेटके, कुछ यादों को भुला के,
मोहब्बत के पाठ पढता हुआ।
जेबें खली थीं उसकी
मगर मुठ्ठी थी बंद,
आँखें थीं थकी-हारी,
पर झलका रहीं थीं उमंग।
खोज में कुछ पाने की निकला था ये राही,
कुछ सपने पूरे करने निकला था ये राही।
न जाने कैसे इस मोड़ पर ला खड़ा किया ज़िन्दगी ने उसे
जहां खुद की पहचान भूल, वो खुदा से पूछ रहा था,
या अल्ला! ये क्या हुआ है मुझे!
क्यों अपना आशियाना छोड़, इन गलियों में भटक रहा हूँ।
न जाने क्या पाने के लिए दीवारों में सर पटक रहा हूँ।
सुनकर उसकी पुकार, देवताओं ने दिया उसे जवाब,
ऐ मूर्ख! तू है मेरी औलाद, क्यों निकला तू इन राहों में
गुलशन था तेरा जीवन, क्यों निकला तू इन गलियों, इन चौबारों में।
बहुत देखे तूने सुख, शायद यही था तेरे नसीब को मंज़ूर
बहुत देखे तूने सुख, शायद यही था तेरे नसीब को मंज़ूर,
थोड़ा गम का प्याला चख, ले ज़िन्दगी का तू मज़ा
दो दिन की बात है, हंसकर काट ले ये सज़ा।
बादलों के बीच से एक आवाज़ चीख़ की आई,
छाती से होते हुए उसके दिल में जा समाई।
"जी हुज़ूर", कहकर वो बढ़ चला उसी राह में;
खो गई थी उसकी पहचान,
भूल चूका था वो सारे गम;
बस आखों में थे कुछ सपने,
व दिल में थी जीने की उमंग
व दिल में थी जीने की उमंग
व दिल में थी जीने की उमंग।
~Varia
What an amazing poem!!! :D
ReplyDeletethank you! :)
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